हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं
हम एक हल्क़ा-ए-वहशत-असर में होते हैं
कभी कभी निगह-ए-आशना के अफ़्साने
उसी हदीस-ए-सर-ए-रहगुज़र में होते हैं
वही हैं आज भी उस जिस्म-ए-नाज़नीं के ख़ुतूत
जो शाख़-ए-गुल में जो मौज-ए-गुहर में होते हैं
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं
गुज़र रहा है तू आँखें चुरा के यूँ न गुज़र
ग़लत-बयाँ भी बहुत रह-गुज़र में होते हैं
क़फ़स वही है जहाँ रंज-ए-नौ-ब-नौ ऐ दोस्त
निगाह-दारी एहसास पर में होते हैं
सिरिश्त-ए-गुल ही में पिन्हाँ हैं सारे नक़्श-ओ-निगार
हुनर यही तो कफ़-ए-कूज़ा-गर में होते हैं
तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
हज़ार तरह के क़िस्से सफ़र में होते हैं
ग़ज़ल
हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी