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हज़ार मर्तबा देखा सितम जुदाई का | शाही शायरी
hazar martaba dekha sitam judai ka

ग़ज़ल

हज़ार मर्तबा देखा सितम जुदाई का

करामत अली शहीदी

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हज़ार मर्तबा देखा सितम जुदाई का
हनूज़ हौसला बाक़ी है आश्नाई का

परी उठी मिरे पहलू से बारहा नाकाम
फ़रेफ़्ता हूँ तिरी तर्ज़-ए-दिलरुबाई का

मुझे अज़ाब-ए-जहन्नम कि बुत-परस्त हूँ मैं
वो बुत बहिश्त में दा'वा जिसे ख़ुदाई का

फ़ज़ा-ए-बाग़ से है गोशा-ए-क़फ़स ख़ुश-तर
गर अपने दिल में न हो दग़दग़ा रिहाई का

अदब न वादी-ए-वहशत के मुझ से तर्क हुए
जुनूँ में होश रहा है बरहना-पाई का

निगाह ख़ंदा तग़ाफ़ुल इ'ताब कोहना हुए
निकाल तर्ज़ नया कोई दिलरुबाई का

बुतों का सज्दा मिरी सरनविश्त में कब था
कि अज़्म का'बे के दर पर हो जुब्बा-साई का

उचक रहा है खड़ा बाम-ए-अर्श पर कम-बख़्त
क़लक़ है मुझ को 'शहीदी' की ना-रसाई का