हज़ार हैफ़ छुटा साथ हम-नशीनों का
मकाँ तो है पे ठिकाना नहीं मकीनों का
खिला जो बाग़ में ग़ुंचा सितारा-दार खिला
गुलों ने नक़्श उतारा है मह-जबीनों का
है अपनी अपनी तबीअत पे हुस्न-ए-शय मौक़ूफ़
मैं क्यूँ हूँ बंदा-ए-बे-दाम उन हसीनों का
नज़र का क्या है भरोसा नज़र पे हैं पर्दे
ख़याल अर्श पे जाता है दूर-बीनों का
ज़मीन-ए-शोर हो या हो ज़मीन-ए-शेर ऐ दिल
नहीं है कोई ख़रीदार इन ज़मीनों का
बहिश्त-ए-दहर है अपना वतन ख़ुदा की क़सम
जुदा जुदा है तराना सभी महीनों का
किसी को मान लिया दिल ने जब तो मान लिया
न दख़्ल दो यही मस्लक है ख़ुश-यक़ीनों का
जो हो मुसव्विर-ए-फ़ितरत मिसाल क्या उस की
गुमाँ न चाहिए इंसाँ पे आबगीनों का
ज़रा निकल के तो दुनिया से देख ऐ इंसाँ
पता न दिन का न अंदाज़ है महीनों का
सिखा दिया मुझे बच बच के रास्ता चलना
ख़ुदा भला करे ऐ 'शाद' नुक्ता-चीनों का
ग़ज़ल
हज़ार हैफ़ छुटा साथ हम-नशीनों का
शाद अज़ीमाबादी