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हवेलियों में मिरी तर्बियत नहीं होती | शाही शायरी
haweliyon mein meri tarbiyat nahin hoti

ग़ज़ल

हवेलियों में मिरी तर्बियत नहीं होती

वसीम बरेलवी

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हवेलियों में मिरी तर्बियत नहीं होती
तो आज सर पे टपकने को छत नहीं होती

हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल
उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती

चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का
हवा के पास कोई मस्लहत नहीं होती

हमें जो ख़ुद में सिमटने का फ़न नहीं आता
तो आज ऐसी तिरी सल्तनत नहीं होती

'वसीम' शहर में सच्चाइयों के लब होते
तो आज ख़बरों में सब ख़ैरियत नहीं होती