हवस जल्वा नहीं ज़ौक़-ए-तमाशा भी नहीं
किसी चेहरे पे तिरे चेहरे का धोका भी नहीं
ग़म-गुसारी की तवक़्क़ो' न दिलासे की उमीद
क्या क़यामत है कि मैं इश्क़ में रुस्वा भी नहीं
वही मिल बैठना पहरों वही अहबाब की बज़्म
ख़ुद-फ़रेबी का भला हो कि मैं तन्हा भी नहीं
हुस्न सर-ता-पा तग़ाफ़ुल है रिवायत के निसार
तजरबा अपना ये कहता है कि ऐसा भी नहीं
सामना हो तो वही बोझ सा जैसे दिल पर
तुम से माना कि किसी बात का पर्दा भी नहीं
आगे आगे कोई मशअ'ल सी लिए चलता था
हाए उस शख़्स का क्या नाम था पूछा भी नहीं
सिर्फ़ ख़ल्वत की है शोख़ी कि अभी तक उस ने
'शाज़' कह कर मुझे महफ़िल में पुकारा भी नहीं
ग़ज़ल
हवस जल्वा नहीं ज़ौक़-ए-तमाशा भी नहीं
शाज़ तमकनत