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हवाएँ लाख चलें लौ सँभलती रहती है | शाही शायरी
hawaen lakh chalen lau sambhalti rahti hai

ग़ज़ल

हवाएँ लाख चलें लौ सँभलती रहती है

अमजद इस्लाम अमजद

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हवाएँ लाख चलें लौ सँभलती रहती है
दिए की रूह में क्या चीज़ जलती रहती है

किसे ख़बर कि ये इक दिन किधर को ले जाए
लहू की मौज जो सर में उछलती रहती है

अगर कहूँ तो तुम्हें भी न ए'तिबार आए
जो आरज़ू मिरे दिल में मचलती रहती है

मदार से नहीं हटता कोई सितारा क्यूँ
ये किस हिसार में हर चीज़ चलती रहती है

वो आदमी हूँ सितारे हूँ या तमन्नाएँ
समय की राह में हर शय बदलती रहती है

यूँही अज़ल से है 'अमजद' ज़मीन गर्दिश में
कभी सहर तो कभी रात ढलती रहती है