हवा को और भी कुछ तेज़ कर गए हैं लोग
चराग़ ले के न जाने किधर गए हैं लोग
सफ़र के शौक़ में इतने अज़ाब झेले हैं
कि अब तो क़स्द-ए-सफ़र ही से डर गए हैं लोग
धुआँ धुआँ नज़र आती हैं शहर की गलियाँ
सुना है आज सर-ए-शाम घर गए हैं लोग
जहाँ से निकले हैं रस्ते मुसाफ़िरों के लिए
मकान ऐसे भी ता'मीर कर गए हैं लोग
कभी कभी तो जुदाई की लज़्ज़तें दे कर
रफ़ाक़तों में नया रंग भर गए हैं लोग
मलाल-ए-तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ न जाने क्या होता
ख़याल-ए-तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ से मर गए हैं लोग
ग़ुरूर तुंद हवाओं का यूँ भी तोड़ा है
चराग़ हाथ पे रख कर गुज़र गए हैं लोग
कोई जवाब नहीं फ़िक्र की बुलंदी का
ज़मीं पे रह के भी अफ़्लाक पर गए हैं लोग
क़रीब थे तो फ़क़त वास्ता था आँखों से
जुदा हुए हैं तो दिल में उतर गए हैं लोग
वो गेसुओं की घटा हो कि दार का साया
जहाँ भी छाँव मिली है ठहर गए हैं लोग
ये और बात कि घर बुझ गए हैं ऐ 'शाएर'
मगर वतन में चराग़ाँ तो कर गए हैं लोग
ग़ज़ल
हवा को और भी कुछ तेज़ कर गए हैं लोग
शायर लखनवी