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हवा-ए-ताज़ा में फिर जिस्म ओ जाँ बसाने का | शाही शायरी
hawa-e-taza mein phir jism o jaan basane ka

ग़ज़ल

हवा-ए-ताज़ा में फिर जिस्म ओ जाँ बसाने का

परवीन शाकिर

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हवा-ए-ताज़ा में फिर जिस्म ओ जाँ बसाने का
दरीचा खोलें कि है वक़्त उस के आने का

असर हुआ नहीं उस पर अभी ज़माने का
ये ख़्वाब-ज़ाद है किरदार किस फ़साने का

कभी कभी वो हमें बे-सबब भी मिलता है
असर हुआ नहीं उस पर अभी ज़माने का

अभी मैं एक महाज़-ए-दिगर पे उलझी हूँ
चुना है वक़्त ये क्या मुझ को आज़माने का

कुछ इस तरह का पुर-असरार है तिरा लहजा
कि जैसे राज़-कुशा हो किसी ख़ज़ाने का