हवा-ए-ताज़ा में फिर जिस्म ओ जाँ बसाने का
दरीचा खोलें कि है वक़्त उस के आने का
असर हुआ नहीं उस पर अभी ज़माने का
ये ख़्वाब-ज़ाद है किरदार किस फ़साने का
कभी कभी वो हमें बे-सबब भी मिलता है
असर हुआ नहीं उस पर अभी ज़माने का
अभी मैं एक महाज़-ए-दिगर पे उलझी हूँ
चुना है वक़्त ये क्या मुझ को आज़माने का
कुछ इस तरह का पुर-असरार है तिरा लहजा
कि जैसे राज़-कुशा हो किसी ख़ज़ाने का
ग़ज़ल
हवा-ए-ताज़ा में फिर जिस्म ओ जाँ बसाने का
परवीन शाकिर