हवा-ए-गर्मी-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ से रूठ गए
ज़रा सी बात पे सारे-जहाँ रूठ गए
वो इश्क़-ए-गुल था कि गुलचीं के हम अदू ठहरे
ये रश्क-ए-गुल है कि हम बाग़बाँ से रूठ गए
जो बे-दिमाग़ तिरी रहगुज़र में आ बैठे
मकाँ तो चीज़ है क्या ला-मकाँ से रूठ गए
जो तेज़-गाम था उस को सिखाई रस्म-ए-सुलूक
जो सुस्त-गाम था इस कारवाँ से रूठ गए
हरम से गुज़रे तो शैख़-ए-हरम से लड़ बैठे
मुग़ाँ में पहुँचे तो पीर-ए-मुग़ाँ से रूठ गए
वो सादा-दिल हैं कि ग़ैरों को राज़दाँ जाना
वो बद-गुमाँ हैं हर राज़-दाँ से रूठ गए
ये देख कर कि ग़म-ए-दो-जहाँ है रस्म-ए-जहाँ
जो अहल-ए-ग़म थे ग़म-ए-दो-जहाँ से रूठ गए
कहाँ हैं अहल-ए-बहार और कहाँ है दावत-ए-गुल
कि बे-नसीब गुल-ओ-गुल्सिताँ से रूठ गए
कहाँ है पीर-ए-मुग़ाँ और कहाँ है मुज़्दा-ए-होश
कि तिश्ना-लब रह-ओ-रस्म-ए-मुग़ाँ से रूठ गए
ये एहतियात ने साक़ी की दिल का हाल किया
कि रिंद गर्मी-ए-बज़्म-ए-जहाँ से रूठ गए

ग़ज़ल
हवा-ए-गर्मी-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ से रूठ गए
ख़ुर्शीदुल इस्लाम