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हसरत-ए-ज़ोहरा-वशाँ सर्व-क़दाँ है कि जो थी | शाही शायरी
hasrat-e-zohra-washan sarw-qadan hai ki jo thi

ग़ज़ल

हसरत-ए-ज़ोहरा-वशाँ सर्व-क़दाँ है कि जो थी

शौक़ माहरी

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हसरत-ए-ज़ोहरा-वशाँ सर्व-क़दाँ है कि जो थी
अपना सरमाया-ए-दिल याद-ए-बुताँ है कि जो थी

कज-कुलाहों से भी शर्मिंदा न होने पाए
हम में वो जुरअत-ए-इज़हार-ए-बयाँ है कि जो थी

वज़्अ'-दारी में कोई फ़र्क़ न आया सर-ए-मू
वही आवारगी-ए-कू-ए-बुताँ है कि जो थी

मैं ने सरमाया-ए-दिल नज़्र-ए-बुताँ कर डाला
मेरे नासेह को मगर फ़िक्र-ए-ज़ियाँ है कि जो थी

मेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी मिरी शोरीदा-सरी
अब भी मक़्बूल-ए-हसीनान-ए-जहाँ है कि जो थी

'शौक़' तक़दीर ने करवट भी न बदली अब तक
ज़िंदगी अब भी वही संग-ए-गराँ है कि जो थी