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हसरत-ए-फ़ैसला-ए-दर्द-ए-जिगर बाक़ी है | शाही शायरी
hasrat-e-faisla-e-dard-e-jigar baqi hai

ग़ज़ल

हसरत-ए-फ़ैसला-ए-दर्द-ए-जिगर बाक़ी है

नुशूर वाहिदी

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हसरत-ए-फ़ैसला-ए-दर्द-ए-जिगर बाक़ी है
और अभी सिलसिला-ए-शाम-ओ-सहर बाक़ी है

आइए और नज़र से भी ज़माना देखें
ज़िंदगी है तो मोहब्बत की नज़र बाक़ी है

या मिरी सुब्ह में रौनक़ नहीं हंगामों की
या मिरी शाम ब-उनवान-ए-सहर बाक़ी है

नौजवानी गई अन्फ़ास की ख़ुश्बू न गई
फूल मुरझाए मगर बाद-ए-सहर बाक़ी है

कूच ही कूच है हर रंग में दुनिया की हयात
इक सफ़र ख़त्म हुआ एक सफ़र बाक़ी है

याद-गार-ए-हरम-ओ-दैर है टूटा हुआ दिल
शहर वीरान हुआ एक ये घर बाक़ी है

हुस्न दिलकश है जहाँ तक है तबस्सुम का सबात
इश्क़ ज़िंदा है अगर दीदा-ए-तर बाक़ी है

बे-मय-ओ-रंग है काशाना-ए-तहज़ीब-ए-जदीद
कुछ पस-ए-पर्दा नहीं पर्दा-ए-दर बाक़ी है

ज़िंदगी क्या है अभी तजरबा करना है 'नुशूर'
शाइरी क्या है अभी नक़्द ओ नज़र बाक़ी है