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हसरत-ए-दीद में गुज़राँ हैं ज़माने कब से | शाही शायरी
hasrat-e-did mein guzaran hain zamane kab se

ग़ज़ल

हसरत-ए-दीद में गुज़राँ हैं ज़माने कब से

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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हसरत-ए-दीद में गुज़राँ हैं ज़माने कब से
दश्त-ए-उम्मीद में गर्दां हैं दिवाने कब से

देर से आँख पे उतरा नहीं अश्कों का अज़ाब
अपने ज़िम्मे है तिरा क़र्ज़ न जाने कब से

किस तरह पाक हो बे-आरज़ू लम्हों का हिसाब
दर्द आया नहीं दरबार सजाने कब से

सर करो साज़ कि छेड़ें कोई दिल-सोज़ ग़ज़ल
ढूँडता है दिल-ए-शोरीदा बहाने कब से

पुर करो जाम कि शायद हो इसी लहज़ा रवाँ
रोक रक्खा है जो इक तीर क़ज़ा ने कब से

'फ़ैज़' फिर कब किसी मक़्तल में करेंगे आबाद
लब पे वीराँ हैं शहीदों के फ़साने कब से