हरीफ़-ए-राज़ हैं ऐ बे-ख़बर दर-ओ-दीवार
कि गोश रखते हैं सब सर-ब-सर दर-ओ-दीवार
नवेद-ए-मक़दम-ए-फ़स्ल-ए-बहार सुन सुन कर
उड़ेंगे शौक़ में बे-बाल-ओ-पर दर-ओ-दीवार
शब-ए-फ़िराक़ में घर मुझ को काटे खाता है
बना है इक सग-ए-दीवाना हर दर-ओ-दीवार
तुम्हारे ग़म ने वो सूरत मिरी बनाई है
कि रो रहे हैं मिरे हाल पर दर-ओ-दीवार
हुजूम-ए-रंज-ओ-क़लक़ में 'ज़हीर' क्या कहिए
नहीं हैं मूनिस-ए-ख़ल्वत मगर दर-ओ-दीवार
ग़ज़ल
हरीफ़-ए-राज़ हैं ऐ बे-ख़बर दर-ओ-दीवार
ज़हीर देहलवी