हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है
ज़मीं को आसमाँ करना पड़ा है
निकल कर आ गए हैं जंगलों में
मकाँ को ला-मकाँ करना पड़ा है
सवा नेज़े पे सूरज आ गया था
लहू को साएबाँ करना पड़ा है
बहुत तारीक थीं हस्ती की राहें
बदन को कहकशाँ करना पड़ा है
किसे मालूम लम्स उन उँगलियों का
हवा को राज़-दाँ करना पड़ा है
वो शायद कोई सच्ची बात कह दे
उसे फिर बद-गुमाँ करना पड़ा है
मैं अपने सारे पत्ते फ़ाश करता
मगर ऐसा कहाँ करना पड़ा है
सफ़र आसाँ नहीं हरफ़ ओ क़लम का
हमें तय हफ़्त-ख़्वाँ करना पड़ा है
था जिस से इख़्तिलाफ़-ए-राय मुमकिन
उसी को मेहरबाँ करना पड़ा है
सफ़-ए-आदा में अपने बाज़ुओं को
मुझे 'अख़्तर' कमाँ करना पड़ा है
ग़ज़ल
हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है
अख़्तर होशियारपुरी