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हरगिज़ मिरा वहशी न हुआ राम किसी का | शाही शायरी
hargiz mera wahshi na hua ram kisi ka

ग़ज़ल

हरगिज़ मिरा वहशी न हुआ राम किसी का

अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ

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हरगिज़ मिरा वहशी न हुआ राम किसी का
वो सुब्ह को है यार मिरा शाम किसी का

इस हस्ती-ए-मौहूम में हरगिज़ न खुली चश्म
मालूम किसी को नहीं अंजाम किसी का

इतना कोई कह दे कि मिरा यार कहाँ है
बिल्लाह मैं लेने का नहीं नाम किसी का

होने दे मिरा चाक गरेबाँ मिरे नासेह
निकले मिरे हाथों से भला काम किसी का

नाहक़ को 'फ़ुग़ाँ' के तईं तशहीर किया है
दुनिया में न होवे कोई बदनाम किसी का