हरे हैं ज़ख़्म कुछ इस तरह भी मिरे सर के
तमाम उम्र उठाए हैं नाज़ पत्थर के
लहूलुहान हुआ है मिरा बदन यूँ भी
पकड़ न पाया कभी हाथ मैं सितमगर के
बस एक हर्फ़-ए-मुक़र्रर के जुर्म में हम ने
ज़बाँ पे वार हज़ारों सहे हैं ख़ंजर के
वो लोग लाया गया है जिन्हें बराबर में
किसी तरह भी नहीं थे मिरे बराबर के
कुछ ऐसे ज़ख़्म भी सर को झुका के खाए हैं
जो मिरे बख़्त के थे और न थे मुक़द्दर के
यही उतारेंगे मंज़िल पे एक दिन मुझ को
ये जितने ज़ख़्म हैं पाँव में मिरे ठोकर के
'नबील' आज वो सर पे सवार हैं मेरे
जो लोग घर में बसाए थे मैं ने बाहर के

ग़ज़ल
हरे हैं ज़ख़्म कुछ इस तरह भी मिरे सर के
नबील अहमद नबील