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हरम में मुद्दतों ढूँडा शिवालों में फिरा बरसों | शाही शायरी
haram mein muddaton DhunDa shiwalon mein phira barson

ग़ज़ल

हरम में मुद्दतों ढूँडा शिवालों में फिरा बरसों

लाला माधव राम जौहर

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हरम में मुद्दतों ढूँडा शिवालों में फिरा बरसों
तलाश-ए-यार में भटका किया मैं बार-हा बरसों

महीनों हाथ जोड़े की ख़ुशामद बार-हा बरसों
इन्हें झगड़ों में मुझ को हो गए ऐ बेवफ़ा बरसों

मआज़-अल्लाह इस आज़ुर्दगी का क्या ठिकाना है
जो पूछा यार से कब तक न बोलोगे कहा बरसों

ग़नीमत जान जो दिन ज़िंदगी के ऐश में गुज़रें
किसी का भी नहीं रहता ज़माना एक सा बरसों

वही ख़ून-ए-शहीद-ए-नाज़ अब बर्बाद होता है
रहा बन कर जो तेरे हाथ में रंग-ए-हिना बरसों

हमारी बे-क़रारी का ज़रा तुम को न ध्यान आया
महीनों मुंतज़िर रक्खा दिखाया रास्ता बरसों

ज़माने में हमेशा हर महीने चाँद होता है
तिरा जल्वा नज़र आता नहीं ऐ मह-लक़ा बरसों

वहीं पर ले चली बे-ताबी-ए-दिल वाह-री क़िस्मत
फिरा की सर पटकती जिस जगह मेरी दुआ बरसों

अदा हो शुक्र क्यूँ-कर बे-कसी ओ ना-उमीदी का
रही हैं साथ फ़ुर्क़त में यही दो आश्ना बरसों

न आया एक दिन भी वो बुत-ए-बे-रहम ऐ 'जौहर'
उठा कर हाथ काबे की तरफ़ माँगी दुआ बरसों