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हर वक़्त फ़िक्र-ए-मर्ग-ए-ग़रीबाना चाहिए | शाही शायरी
har waqt fikr-e-marg-e-gharibana chahiye

ग़ज़ल

हर वक़्त फ़िक्र-ए-मर्ग-ए-ग़रीबाना चाहिए

मजीद अमजद

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हर वक़्त फ़िक्र-ए-मर्ग-ए-ग़रीबाना चाहिए
सेह्हत का एक पहलू मरीज़ाना चाहिए

दुनिया-ए-बे-तरीक़ में जिस सम्त भी चलो
रस्ते में इक सलाम रफीक़ाना चाहिए

आँखों में उमडे रूह की नज़दीकियों के साथ
ऐसा भी एक दूर का याराना चाहिए

क्या पस्तियों की ज़िल्लतें क्या अज़्मतों के फ़ौज़
अपने लिए अज़ाब जुदागाना चाहिए

अब दर्द-ए-शुश भी साँस की कोशिश में है शरीक
अब क्या हो अब तो नींद को आ जाना चाहिए

रौशन तराइयों से उतरती हवा में आज
दो चार गाम लग़्ज़िश-ए-मस्ताना चाहिए

'अमजद' इन अश्क-बार ज़मानों के वास्ते
इक साअत-ए-बहार का नज़राना चाहिए