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हर वफ़ा ना-आश्ना से भी वफ़ा करना पड़ी | शाही शायरी
har wafa na-ashna se bhi wafa karna paDi

ग़ज़ल

हर वफ़ा ना-आश्ना से भी वफ़ा करना पड़ी

हामिद इलाहाबादी

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हर वफ़ा ना-आश्ना से भी वफ़ा करना पड़ी
दिल से दुश्मन के लिए अक्सर दुआ करना पड़ी

मैं हुआ रुस्वा तो मेरा ग़म भी रुस्वा हो गया
ज़िंदगी की किस क़दर क़ीमत अदा करना पड़ी

ऐ निगाह-ए-मोहतसिब जो चाहे तू कह ले मुझे
जीते-जी इस दिल के हाथों हर ख़ता करना पड़ी

है फ़रेब-ए-दिल भी शायद वज्ह-ए-तकमील-ए-वफ़ा
आरज़ू-ए-दिल भी हम-रंग-ए-हिना करना पड़ी

ज़ीस्त की ख़ुद्दारियों पर हर्फ़ लाने के लिए
दोस्तों को भी करम की इंतिहा करना पड़ी

अहल-ए-दिल ने ही भरम रक्खा ग़ुरूर-ए-हुस्न का
वर्ना तुम भी कह उठे थे अब दुआ करना पड़ी

बे-निगाह-ए-लुत्फ़-ए-साक़ी काम कुछ बनता नहीं
हुस्न-ए-बे-परवा से 'हामिद' इल्तिजा करना पड़ी