हर उज़्व मुसाफ़िर है नहीं कुछ सफ़री आँख
है आख़िर-ए-शब उम्र चराग़-ए-सहरी आँख
क्या करती है दिलकश सुख़न ऐ रश्क-ए-परी आँख
लो सीख गई तर्ज़-ए-कलाम-ए-बशरी आँख
उन आँखों में साने' ने भरे कूट के मोती
क़िस्मत ये हमारी है कि अश्कों से भरी आँख
बातें जो करो नाज़ से तुम मुँह को छुपा कर
सुनने के लिए कान हो ऐ रश्क-ए-परी आँख
आया है मिरे दिल का ग़ुबार आँसुओं के साथ
लो अब तो हुई मालिक-ए-ख़ुशकी-ओ-तिरी आँख
अब तक वही रोना है वही हसरत-ए-दीदार
हम मर गए इस पर भी ये काफ़िर न मरी आँख
तय्यार किया ख़ामा-ए-मू अपने मिज़ा से
खींचेंगे मगर नक़्शा-ए-नाज़ुक कमरी आँख
नर्गिस पे नज़र कीजे दोबारा कि वो कट जाए
हो जाए नज़र-ए-सानी में इस की नज़री आँख
सोहबत का असर साहब-ए-बीनिश को हो क्यूँकर
ऐनक हो अगर सब्ज़ न हो जाए हरी आँख
बातों को ज़बाँ मिस्ल-ए-सुख़न मुँह से निकल जाए
नज़्ज़ारे को हो पा-ए-निगह से सफ़री आँख
तीर-ए-मिज़ा-ए-यार को मिज़्गाँ ही समझते
किस आँख से लड़ते ही सदा बलबे जरी आँख
रफ़्तार तो दिखला के ज़-ख़ुद रफ़्ता बना दो
नर्गिस की तरह है हमा-तन कब्क-ए-दरी आँख
दामन की तरह चाक हुए आँख के पर्दे
ओ दस्त-ए-जुनूँ से कि गई जामा-दरी आँख
जो अहल-ए-नज़र में कभी ख़ुद-बींं नहीं होती
देखो कि है इस ऐब-ए-नुमायाँ से बरी आँख
क्या क़हर सिवा आयत-ए-अबरु हुई नाज़िल
डर है न करे दा'वा-ए-पैग़ाम्बरी आँख
कश्ती वो लिए नूह की मानिंद चले आएँ
तूफ़ान बपा कर शब-ए-फ़ुर्क़त में अरी आँख
रहते हैं 'वज़ीर' अश्क की जा टुकड़े जिगर के
इन रोज़ों हुई कान-ए-अक़ीक़-ए-जिगरी आँख
ग़ज़ल
हर उज़्व मुसाफ़िर है नहीं कुछ सफ़री आँख
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

