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हर सितम लुत्फ़ है दिल ख़ूगर-ए-आज़ार कहाँ | शाही शायरी
har sitam lutf hai dil KHugar-e-azar kahan

ग़ज़ल

हर सितम लुत्फ़ है दिल ख़ूगर-ए-आज़ार कहाँ

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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हर सितम लुत्फ़ है दिल ख़ूगर-ए-आज़ार कहाँ
सच कहा तुम ने मुझे ग़म से सरोकार कहाँ

दश्त-ओ-सहरा के कुछ आदाब हुआ करते हैं
क्यूँ भटकते हो यहाँ साया-ए-दीवार कहाँ

बादा-ए-शौक़ से लबरेज़ है साग़र मेरा
कैसे अज़़कार मुझे फ़ुर्सत-ए-अफ़्कार कहाँ

क्यूँ तिरे दौर में महरूम-ए-सज़ा हूँ कि मुझे
जुर्म पर नाज़ सही जुर्म से इंकार कहाँ

रह-रव-ए-शौक़ है बेगाना-ए-मंज़िल वर्ना
कूचा-ए-दार कहाँ कूचा-ए-दिलदार कहाँ

सोचते क्या हो जलाते रहो ज़ख़्मों के चराग़
देखते क्या हो अभी सुब्ह के आसार कहाँ

तुम को चाहा था मगर तुम भी वफ़ा-दोस्त नहीं
दिल पे तकिया था मगर दिल भी वफ़ादार कहाँ

यूँ तो हर गाम पे ग़म-ख़्वार मिले हैं 'ताबाँ'
जो मिरे ग़म को समझ पाए वो ग़म-ख़्वार कहाँ