हर सितम लुत्फ़ है दिल ख़ूगर-ए-आज़ार कहाँ
सच कहा तुम ने मुझे ग़म से सरोकार कहाँ
दश्त-ओ-सहरा के कुछ आदाब हुआ करते हैं
क्यूँ भटकते हो यहाँ साया-ए-दीवार कहाँ
बादा-ए-शौक़ से लबरेज़ है साग़र मेरा
कैसे अज़़कार मुझे फ़ुर्सत-ए-अफ़्कार कहाँ
क्यूँ तिरे दौर में महरूम-ए-सज़ा हूँ कि मुझे
जुर्म पर नाज़ सही जुर्म से इंकार कहाँ
रह-रव-ए-शौक़ है बेगाना-ए-मंज़िल वर्ना
कूचा-ए-दार कहाँ कूचा-ए-दिलदार कहाँ
सोचते क्या हो जलाते रहो ज़ख़्मों के चराग़
देखते क्या हो अभी सुब्ह के आसार कहाँ
तुम को चाहा था मगर तुम भी वफ़ा-दोस्त नहीं
दिल पे तकिया था मगर दिल भी वफ़ादार कहाँ
यूँ तो हर गाम पे ग़म-ख़्वार मिले हैं 'ताबाँ'
जो मिरे ग़म को समझ पाए वो ग़म-ख़्वार कहाँ
ग़ज़ल
हर सितम लुत्फ़ है दिल ख़ूगर-ए-आज़ार कहाँ
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ