हर शख़्स इस हुजूम में तन्हा दिखाई दे
दुनिया भी इक अजीब तमाशा दिखाई दे
इक उम्र क़त्-ए-वादी-ए-शब में गुज़र गई
अब तो कहीं सहर का उजाला दिखाई दे
ऐ मौजा-ए-सराब-ए-तमन्ना सितम न कर
सहरा ही सामने है तो सहरा दिखाई दे
मैं भी चला तो प्यास बुझाने को था मगर
साहिल को देखता हूँ कि प्यासा दिखाई दे
अल्फ़ाज़ ख़त्म हों तो मिले रिश्ता-ए-ख़याल
ये गर्द बैठ जाए तो रस्ता दिखाई दे
कौन अपना अक्स देख के हैराँ पलट गया
चेहरा ये मौज मौज में किस का दिखाई दे
तू मुनकिर-ए-वफ़ा है तुझे क्या दिखाऊँ दिल
ग़म शो'ला-ए-निहाँ है भला क्या दिखाई दे
हर शब दर-ए-ख़याल पे ठहरे वो एक चाप
हर शब फ़सील-ए-दिल पे वो चेहरा दिखाई दे
लब-बस्तगी से और खिले ग़ुंचा-ए-सदा
वो चुप रहे तो और भी गोया दिखाई दे
'असलम' ग़रीब-ए-शहर-ए-सुख़न है कभी मिलें
कहते हैं आदमी तो भला सा दिखाई दे
ग़ज़ल
हर शख़्स इस हुजूम में तन्हा दिखाई दे
असलम अंसारी