हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही
क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही
तू मर्द-ए-मैदाँ तू मीर-ए-लश्कर
नूरी हुज़ूरी तेरे सिपाही
कुछ क़द्र अपनी तू ने न जानी
ये बे-सवादी ये कम-निगाही
दुनिया-ए-दूँ की कब तक ग़ुलामी
या राहेबी कर या पादशाही
पीर-ए-हरम को देखा है मैं ने
किरदार-ए-बे-सोज़ गुफ़्तार वाही
ग़ज़ल
हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही
अल्लामा इक़बाल