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हर शय जहाँ की गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-ख़याल है | शाही शायरी
har shai jahan ki gard-o-ghubar-e-KHayal hai

ग़ज़ल

हर शय जहाँ की गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-ख़याल है

जाफ़र ताहिर

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हर शय जहाँ की गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-ख़याल है
आशोब-गाह-ए-दहर में जीना मुहाल है

ये गुलशन-ए-यक़ीं भी ब-जुज़ वहम कुछ नहीं
आलम जिसे कहें वो तिलिस्म-ए-ख़याल है

नैरंगी-ए-नज़र के सिवा और कुछ नहीं
दूद-ए-फ़िराक़ जल्वा-ए-शाम-ए-विसाल है

ये नग़्मा-ए-वजूद किसी रागनी की राख
इक चीख़ साज़-ए-उम्र-ए-अबद का मआ'ल है

हर मौज है कि हाथ से छुटती हुई इनाँ
वो जस्त-ओ-ख़ेज़ है कि सँभलना मुहाल है

तपते दिनों की आग में जीने की आरज़ू
शबनम ब-रु-ए-गुल अरक़-ए-इंफ़िआ'ल है

तन्हाइयों में बैठ के ख़ुद को शिकार कर
ये दश्त-ए-दिल भी दश्त-ए-ख़ुतन की मिसाल है