हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
मूसा नहीं कि सैर करूँ कोह-ए-तूर का
पढ़िए दुरूद हुस्न-ए-सबीह-ओ-मलीह पर
जल्वा हर एक पर है मोहम्मद के नूर का
तोड़ूँ ये आइना कि हम-आग़ोश-ए-अक्स है
होवे न मुज को पास जो तेरे हुज़ूर का
बेकस कोई मरे तो जले उस पे दिल मिरा
गोया है ये चराग़ ग़रीबाँ की गोर का
हम तो क़फ़स में आन के ख़ामोश हो रहे
ऐ हम-सफ़ीर फ़ाएदा नाहक़ के शोर का
साक़ी से कह कि है शब-ए-महताब जल्वा-गर
दे बस्मा-पोश हो के तू साग़र बिलोर का
'सौदा' कभी न मानियो वाइज़ की गुफ़्तुगू
आवाज़-ए-दुहुल है ख़ुश-आइंद दूर का
ग़ज़ल
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
मोहम्मद रफ़ी सौदा