हर नक़्श-ए-नवा लौट के जाने के लिए था 
जो भूल चुका हूँ वो भुलाने के लिए था 
कुछ भेद ज़माने के भी मुझ पर न खुले थे 
कुछ मैं भी रिया-कार ज़माने के लिए था 
कुछ मैं ने भी बे-वज्ह हँसी उस की उड़ाई 
कुछ वो भी मिरी जान जलाने के लिए था 
कुछ लोग जज़ीरों पे खड़े थे सो खड़े हैं 
सैलाब सफ़ीनों को बहाने के लिए था 
प्यासा जो न होता तो समुंदर से न मिलता 
दरिया जो मिरी प्यास बुझाने के लिए था 
गिरनी ही थी इक रोज़ ये दीवार बदन की 
ये राह का पत्थर भी हटाने के लिए था 
सब मेरी उदासी में तुझे ढूँड रहे थे 
हँसना भी मिरा तुझ को छुपाने के लिए था 
इक लहर कि बस ख़ाक उड़ाने पे ब-ज़िद थी 
इक रंग कि पलकों में सजाने के लिए था 
इक लम्हा-ए-ख़ाली की सदा सब ने सुनी थी 
इक शोर ख़मोशी को बढ़ाने के लिए था 
ख़ीरा हैं निगाहें तो न कुछ देख सकेंगी 
मंज़र जो यहाँ था नज़र आने के लिए था 
आप-अपनी जसारत से तह-ए-आब हुआ है 
वो डूबने वाले को बचाने के लिए था
        ग़ज़ल
हर नक़्श-ए-नवा लौट के जाने के लिए था
शमीम हनफ़ी

