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हर मोड़ को चराग़-ए-सर-ए-रहगुज़र कहो | शाही शायरी
har moD ko charagh-e-sar-e-rahguzar kaho

ग़ज़ल

हर मोड़ को चराग़-ए-सर-ए-रहगुज़र कहो

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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हर मोड़ को चराग़-ए-सर-ए-रहगुज़र कहो
बीते हुए दिनों को ग़ुबार-ए-सफ़र कहो

ख़ूँ-गश्ता आरज़ू को कहो शाम-ए-मय-कदा
दिल की जराहतों को चमन की सहर कहो

हर रहगुज़र पे करता हूँ ज़ंजीर का क़यास
चाहो तो तुम उसे भी जुनूँ का असर कहो

मेरी मता-ए-दर्द यही ज़िंदगी तो है
ना-मो'तबर कहो कि उसे मो'तबर कहो

ये भी उरूज-ए-रंग का इक मो'जिज़ा सही
फूलों की ताज़गी को फ़रोग़-ए-शरर कहो

दानिश-वरान-ए-हाल का 'ताबाँ' है मशवरा
हर मंज़र-ए-जहाँ को फ़रेब-ए-नज़र कहो