हर लम्हा ज़िंदगी के पसीने से तंग हूँ 
मैं भी किसी क़मीज़ के कॉलर का रंग हूँ 
मुहरा सियासतों का मिरा नाम आदमी 
मेरा वजूद क्या है ख़लाओं की जंग हूँ 
रिश्ते गुज़र रहे हैं लिए दिन में बत्तियाँ 
मैं आधुनिक सदी की अँधेरी सुरंग हूँ 
निकला हूँ इक नद्दी सा समुंदर को ढूँढने 
कुछ दूर कश्तियों के अभी संग-संग हूँ 
माँझा कोई यक़ीन के क़ाबिल नहीं रहा 
तन्हाइयों के पेड़ से अटकी पतंग हूँ 
ये किस का दस्तख़त है बताए कोई मुझे 
मैं अपना नाम लिख के अंगूठे सा दंग हूँ
        ग़ज़ल
हर लम्हा ज़िंदगी के पसीने से तंग हूँ
सूर्यभानु गुप्त

