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हर ख़्वाब के मकाँ को मिस्मार कर दिया है | शाही शायरी
har KHwab ke makan ko mismar kar diya hai

ग़ज़ल

हर ख़्वाब के मकाँ को मिस्मार कर दिया है

शहरयार

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हर ख़्वाब के मकाँ को मिस्मार कर दिया है
बेहतर दिनों का आना दुश्वार कर दिया है

वो दश्त हो कि बस्ती साया सुकूत का है
जादू-असर सुख़न को बेकार कर दिया है

गिर्द-ओ-नवाह-ए-दिल में ख़ौफ़-ओ-हिरास इतना
पहले कभी नहीं था इस बार कर दिया है

कल और साथ सब के इस पार हम खड़े थे
इक पल में हम को किस ने उस पार कर दिया है

पा-ए-जुनूँ पे कैसी उफ़्ताद आ पड़ी है
अगली मसाफ़तों से इंकार कर दिया है