हर इक ने कहा क्यूँ तुझे आराम न आया
सुनते रहे हम लब पे तिरा नाम न आया
दीवाने को तकती हैं तिरे शहर की गलियाँ
निकला तो इधर लौट के बद-नाम न आया
मत पूछ कि हम ज़ब्त की किस राह से गुज़रे
ये देख कि तुझ पर कोई इल्ज़ाम न आया
क्या जानिए क्या बीत गई दिन के सफ़र में
वो मुंतज़िर-ए-शाम सर-ए-शाम न आया
ये तिश्नगियाँ कल भी थीं और आज भी 'ज़ैदी'
उस होंट का साया भी मिरे काम न आया
ग़ज़ल
हर इक ने कहा क्यूँ तुझे आराम न आया
मुस्तफ़ा ज़ैदी