EN اردو
हर गाम सँभल सँभल रही थी | शाही शायरी
har gam sambhal sambhal rahi thi

ग़ज़ल

हर गाम सँभल सँभल रही थी

अदा जाफ़री

;

हर गाम सँभल सँभल रही थी
यादों के भँवर में चल रही थी

साँचे में ख़बर के ढल रही थी
इक ख़्वाब की लौ से जल रही थी

शबनम सी लगी जो देखने मैं
पत्थर की तरह पिघल रही थी

रूदाद सफ़र की पूछते हो
मैं ख़्वाब में जैसे चल रही थी

कैफ़िय्यत-ए-इंतिज़ार-ए-पैहम
है आज वही जो कल रही थी

थी हर्फ़-ए-दुआ सी याद उस की
ज़ंजीर-ए-फ़िराक़ गल रही थी

कलियों को निशान-ए-रह दिखा कर
महकी हुई रात ढल रही थी

लोगों को पसंद लग़्ज़िश-ए-पा
ऐसे में 'अदा' सँभल रही थी