हर एक शख़्स को दुश्मन अगर बनाओगे
मिज़ाज पूछने वाला कहाँ से लाओगे
जो सब को अपने ही मेआ'र पर परखते रहे
तो ज़िंदगी में किसे हम-सफ़र बनाओगे
यहाँ तो हर कोई चेहरे पे चेहरे रखता है
उठा के पहलू से किस को किसे बिठाओगे
तुम्हें उसूल तुम्हारे ही मार डालेंगे
न आपने-आप को इन से अगर बचाओगे
चराग़ जलने लगेंगे तुम्हारी राहों में
जो दूसरों के घरों में दिए जलाओगे
ये अहद तुम से अगर हो सके तो कर लेना
हमारे बा'द किसी का न दिल दिखाओगे
नहीं झुकोगे अगर इक ख़ुदा के आगे तुम
न जाने कितने दरों पर ये सर झुकाओगे
वो तुम से रूठ गई जो मकाँ की रौनक़ थी
ग़रीब-ख़ाने को अब किस लिए सजाओगे
सुपुर्द-ए-ख़ाक तो कर आए माँ को तुम 'अतहर'
ग़मों की धूप में साया कहाँ से पाओगे
ये बे-हिसों की है बस्ती तो फिर 'शकील' यहाँ
सदाक़तों का किसे आइना दिखाओगे
ग़ज़ल
हर एक शख़्स को दुश्मन अगर बनाओगे
अतहर शकील