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हर एक शख़्स को दुश्मन अगर बनाओगे | शाही शायरी
har ek shaKHs ko dushman agar banaoge

ग़ज़ल

हर एक शख़्स को दुश्मन अगर बनाओगे

अतहर शकील

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हर एक शख़्स को दुश्मन अगर बनाओगे
मिज़ाज पूछने वाला कहाँ से लाओगे

जो सब को अपने ही मेआ'र पर परखते रहे
तो ज़िंदगी में किसे हम-सफ़र बनाओगे

यहाँ तो हर कोई चेहरे पे चेहरे रखता है
उठा के पहलू से किस को किसे बिठाओगे

तुम्हें उसूल तुम्हारे ही मार डालेंगे
न आपने-आप को इन से अगर बचाओगे

चराग़ जलने लगेंगे तुम्हारी राहों में
जो दूसरों के घरों में दिए जलाओगे

ये अहद तुम से अगर हो सके तो कर लेना
हमारे बा'द किसी का न दिल दिखाओगे

नहीं झुकोगे अगर इक ख़ुदा के आगे तुम
न जाने कितने दरों पर ये सर झुकाओगे

वो तुम से रूठ गई जो मकाँ की रौनक़ थी
ग़रीब-ख़ाने को अब किस लिए सजाओगे

सुपुर्द-ए-ख़ाक तो कर आए माँ को तुम 'अतहर'
ग़मों की धूप में साया कहाँ से पाओगे

ये बे-हिसों की है बस्ती तो फिर 'शकील' यहाँ
सदाक़तों का किसे आइना दिखाओगे