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हर एक राह से आगे है ख़्वाब की मंज़िल | शाही शायरी
har ek rah se aage hai KHwab ki manzil

ग़ज़ल

हर एक राह से आगे है ख़्वाब की मंज़िल

मुज़फ्फर अली सय्यद

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हर एक राह से आगे है ख़्वाब की मंज़िल
तिरे हुज़ूर से बढ़ कर ग़याब की मंज़िल

नहीं है आप ही मक़्सूद अपना जौहर-ए-ज़ात
कि आफ़्ताब नहीं आफ़्ताब की मंज़िल

कुछ ऐसा रंज दिया बचपने की उल्फ़त ने
फिर उस के बा'द न आई शबाब की मंज़िल

मुसाफ़िरों को बराबर नहीं ज़मान-ओ-मकाँ
हवा का एक क़दम और हबाब की मंज़िल

मोहब्बतों के ये लम्हे दरेग़ क्यूँ कीजे
भुगत ही लेंगे जो आई हिसाब की मंज़िल

मिलेगी बादा-गुसारों को शैख़ क्या जाने
गुनह की राह से हो कर सवाब की मंज़िल

मसाम नाच रहे हैं मुआ'मलत के लिए
गुज़र गई है सवाल-ओ-जवाब की मंज़िल

मिली जो आस तो सब मरहले हुए आसाँ
नहीं है कोई भी मंज़िल सराब की मंज़िल

मिज़ाज-ए-दर्द को आसूदगी से रास करो
कहाँ मिलेगी तुम्हें इज़्तिराब की मंज़िल

रह-ए-जुनूँ में तलब के सिवा नहीं 'सय्यद'
अगरचे तय हो ख़ुदा की किताब की मंज़िल