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हर एक गाम पे सदियाँ निसार करते हुए | शाही शायरी
har ek gam pe sadiyan nisar karte hue

ग़ज़ल

हर एक गाम पे सदियाँ निसार करते हुए

शहज़ाद नय्यर

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हर एक गाम पे सदियाँ निसार करते हुए
मैं चल रहा था ज़माने शुमार करते हुए

यही खुला कि मुसाफ़िर ने ख़ुद को पार किया
तिरी तलाश के सहरा को पार करते हुए

मैं रश्क-ए-रेशा-ए-गुल था बदल के संग हुआ
बदन को तेरे बदन का हिसार करते हुए

मुझे ज़रूर किनारे पुकारते होंगे
मगर में सुन नहीं पाया पुकार करते हुए

में इज़्तिराब-ए-ज़माना से बच निकलता हूँ
तुम्हारे क़ौल को दिल का क़रार करते हुए

जहान-ए-ख़्वाब की मंज़िल कभी नहीं आई
ज़माने चलते रहे इंतिज़ार करते होए

मैं राह-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ से गुज़रता जाता हूँ
कभी गुरेज़ कभी इख़्तियार करते हुए

नहीं गिरा मिरी क़ातिल अना का ताज महल
मैं मर गया हूँ ख़ुद अपने पे वार करते हुए

मैं और नीम-दिली से वफ़ा की राह चलूँ
मैं अपनी जाँ से गुज़रता हूँ प्यार करते हुए

यक़ीन छोड़ के नय्यर गुमाँ पकड़ता रहा
निगाह-ए-यार तिरा ए'तिबार करते हुए