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हर एक गाम पे रंज-ए-सफ़र उठाते हुए | शाही शायरी
har ek gam pe ranj-e-safar uThate hue

ग़ज़ल

हर एक गाम पे रंज-ए-सफ़र उठाते हुए

कामी शाह

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हर एक गाम पे रंज-ए-सफ़र उठाते हुए
मैं आ पड़ा हूँ यहाँ तुझ से दूर जाते हुए

अजीब आग थी जिस ने मुझे फ़रोग़ दिया
इक इंतिज़ार में रक्खे दिए जलाते हुए

तवील रात से होता है बरसर-ए-पैकार
सो चाक तेज़ हुआ है मुझे बनाते हुए

ये तेज़-गामी-ए-सहरा अलग मिज़ाज की है
जो मुझ से भाग रही है क़रीब आते हुए

है एक शोर-ए-गुज़िश्ता मिरे तआक़ुब में
मैं सुन रहा हूँ जिसे अपने पार आते हुए

शरीक-ए-आतिश ओ आब-ओ-हवा ओ ख़ाक रहे
मिरे अनासिर-ए-तरतीब शक्ल पाते हुए

बहुत क़रीब से गुज़री है वो नवा-ए-सफ़ेद
मिरे हवास का नीला धुआँ उड़ाते हुए

मैं इम्तिज़ाज-ए-क़दीम-ओ-जदीद हूँ 'कामी'
सो इस्म-ए-अस्र ही पढ़ना मुझे बुलाते हुए