हर चीज़ में अक्स-ए-रुख़-ए-ज़ेबा नज़र आया
आलम मुझे सब जल्वा ही जल्वा नज़र आया
तू कब किसी तालिब को सरापा नज़र आया
देखा तुझे उतना जिसे जितना नज़र आया
कीं बंद जब आँखें तो मिरी खुल गईं आँखें
क्या तुम से कहूँ फिर मुझे क्या क्या नज़र आया
जब महर नुमायाँ हुआ सब छुप गए तारे
तू मुझ को भरी बज़्म में तन्हा नज़र आया
गर्दूं को भी अब देख के होती है तसल्ली
ग़ुर्बत में यही एक शनासा नज़र आया
सब दौलत-ए-कौनैन जो दी इश्क़ के बदले
इस भाव ये सौदा मुझे सस्ता नज़र आया
नाकाम ही ता-उम्र रहा तालिब-ए-दीदार
हर जल्वा तिरा बाद को पर्दा नज़र आया
जो दूर निगाहों से सर-ए-अर्श-ए-बरीं है
वो नूर सर-ए-गुम्बद-ए-ख़िज़रा नज़र आया
'मज्ज़ूब' कभी सोज़ कभी साज़ है तुझ में
तू 'मीर' कभी और कभी 'सौदा' नज़र आया
'मज्ज़ूब' के जज़्बे की जो समझे न हक़ीक़त
उन अक़्ल के अँधों को ये सौदा नज़र आया

ग़ज़ल
हर चीज़ में अक्स-ए-रुख़-ए-ज़ेबा नज़र आया
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब