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हर-चंद भरे दिल में हैं लाखों ही गिले पर | शाही शायरी
har-chand bhare dil mein hain lakhon hi gile par

ग़ज़ल

हर-चंद भरे दिल में हैं लाखों ही गिले पर

जुरअत क़लंदर बख़्श

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हर-चंद भरे दिल में हैं लाखों ही गिले पर
क्या कहिए कि खुलता नहीं मुँह वक़्त मिले पर

बे-दर्द वो ऐसा है कि मरहम की जगह हाए
छिड़के है नमक मेरे हर इक ज़ख़्म छिले पर

ता दिल को न वाशुद हो तो क्या लुत्फ़ मिले हाए
खिलती है जो बू ग़ुंचा-ए-गुल की तो खिले पर

मशहूर जवानी में हो वो क्यूँ न जगत-बाज़
मैलान-ए-तबीअत था लड़कपन से ज़िले पर

हम गुलशन-ए-हैरत में हैं पर्वाज़ कहाँ की
जूँ बुलबुल-ए-तस्वीर कभी टुक न हिले पर

सुन वस्फ़-ए-दहन दीजिए कुछ मुँह से पियारे
मुझ शाएर-ए-मुफ़्लिस की है गुज़रान सिले पर

किस मुँह से बयाँ कीजिए वो लुत्फ़ कि 'जुरअत'
दुश्नाम जो वाँ मिलती हैं टुक आँख मिले पर