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हर आवाज़ ज़मिस्तानी है हर जज़्बा ज़िंदानी है | शाही शायरी
har aawaz zamistani hai har jazba zindani hai

ग़ज़ल

हर आवाज़ ज़मिस्तानी है हर जज़्बा ज़िंदानी है

उबैदुल्लाह अलीम

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हर आवाज़ ज़मिस्तानी है हर जज़्बा ज़िंदानी है
कूचा-ए-यार से दार-ओ-रसन तक एक सी ही वीरानी है

कितने कोह-ए-गिराँ काटे तब सुब्ह-ए-तरब की दीद हुई
और ये सुब्ह-ए-तरब भी यारो कहते हैं बेगानी है

जितने आग के दरिया में सब पार हमीं को करना हैं
दुनिया किस के साथ आई है दुनिया तो दीवानी है

लम्हा लम्हा ख़्वाब दिखाए और सौ सौ ता'बीर करे
लज़्ज़त-ए-कम-आज़ार बहुत है जिस का नाम जवानी है

दिल कहता है वो कुछ भी हो उस की याद जगाए रख
अक़्ल ये कहती है कि तवहहुम पर जीना नादानी है

तेरे प्यार से पहले कब था दिल में ऐसा सोज़-ओ-गुदाज़
तुझ से प्यार किया तो हम ने अपनी क़ीमत जानी है

आप भी कैसे शहर में आ कर शाइर कहलाए हैं 'अलीम'
दर्द जहाँ कमयाब बहुत है नग़्मों की अर्ज़ानी है