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हर आइने में तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल आते हैं | शाही शायरी
har aaine mein tere KHadd-o-Khaal aate hain

ग़ज़ल

हर आइने में तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल आते हैं

साजिद अमजद

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हर आइने में तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल आते हैं
अजीब रंज तिरे आश्ना उठाते हैं

तमाम उम्र किसे कौन याद रखता है
ये जानते हैं मगर हौसला बढ़ाते हैं

विसाल-ओ-हिज्र की सब तोहमतें उसी तक थीं
अब ऐसे ख़्वाब भी कब देखने में आते हैं

ये लहर लहर किसे ढूँडती है मौज-ए-हवा
ये रेगज़ार किसे आइना दिखाते हैं

शिकस्त-ए-जाँ को अभी ए'तिबार-ए-जाँ है बहुत
सराब-ए-दश्त में दरिया के ख़्वाब आते हैं

अगर मिले हैं वो लम्हे तो उन की क़द्र करो
मोहब्बतों के ये मौसम गुज़र भी जाते हैं

जो मिल गए हैं उन्हें भूलना ज़रूरी है
मिले नहीं हैं जो चेहरे वो याद आते हैं

गुज़र रही है यूँही शाम-ए-ज़िंदगी 'साजिद'
कि इक चराग़ जलाते हैं इक बुझाते हैं