हक़ वफ़ा के जो हम जताने लगे
आप कुछ कह के मुस्कुराने लगे
था यहाँ दिल में तान-ए-वस्ल-ए-अदू
उज़्र उन की ज़बाँ पे आने लगे
हम को जीना पड़ेगा फ़ुर्क़त में
वो अगर हिम्मत आज़माने लगे
डर है मेरी ज़बाँ न खुल जाए
अब वो बातें बहुत बनाने लगे
जान बचती नज़र नहीं आती
ग़ैर उल्फ़त बहुत जताने लगे
तुम को करना पड़ेगा उज़्र-ए-जफ़ा
हम अगर दर्द-ए-दिल सुनाने लगे
सख़्त मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
हम भी आख़िर को जी चुराने लगे
जी में है लूँ रज़ा-ए-पीर-ए-मुग़ाँ
क़ाफ़िले फिर हरम को जाने लगे
सिर्र-ए-बातिन को फ़ाश कर या रब
अहल-ए-ज़ाहिर बहुत सताने लगे
वक़्त-ए-रुख़्सत था सख़्त 'हाली' पर
हम भी बैठे थे जब वो जाने लगे
ग़ज़ल
हक़ वफ़ा के जो हम जताने लगे
अल्ताफ़ हुसैन हाली