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हँसने में रोने की आदत कभी ऐसी तो न थी | शाही शायरी
hansne mein rone ki aadat kabhi aisi to na thi

ग़ज़ल

हँसने में रोने की आदत कभी ऐसी तो न थी

एजाज़ उबैद

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हँसने में रोने की आदत कभी ऐसी तो न थी
तेरी शोख़ी ग़म-ए-फ़ुर्क़त कभी ऐसी तो न थी

अश्क आ जाएँ तो पलकों पे बिठाऊंगा उन्हें
क़तरा-ए-ख़ूँ तिरी इज़्ज़त कभी ऐसी तो न थी

किश्त-ए-ग़म और भी लहराने लगी हँसने लगी
चश्म-ए-नम तेरी शरारत कभी ऐसी तो न थी

कितने ग़म भूल गया शुक्रिया तेरा ग़म-ए-यार
यूँ मुझे तेरी ज़रूरत कभी ऐसी तो न थी

वो मुजस्सम भी जो आ जाए तो देखूँ न उसे
मेरी उस बुत की इबादत कभी ऐसी तो न थी

देर तक बैठे प कुछ तू ने न मैं ने ही कहा
जैसी तुझ से है रिफ़ाक़त कभी ऐसी तो न थी

एक इक शे'र से टपके हैं लहू के क़तरे
मेरी दुश्मन ये तबीअ'त कभी ऐसी तो न थी