हँसी छुपा भी गया और नज़र मिला भी गया 
ये इक झलक का तमाशा जिगर जला भी गया 
उठा तो जा भी चुका था अजीब मेहमाँ था 
सदाएँ दे के मुझे नींद से जगा भी गया 
ग़ज़ब हुआ जो अँधेरे में जल उठी बिजली 
बदन किसी का तिलिस्मात कुछ दिखा भी गया 
न आया कोई लब-ए-बाम शाम ढलने लगी 
वुफ़ूर-ए-शौक़ से आँखों में ख़ून आ भी गया 
हवा थी गहरी घटा थी हिना की ख़ुशबू थी 
ये एक रात का क़िस्सा लहू रुला भी गया 
चलो 'मुनीर' चलें अब यहाँ रहें भी तो क्या 
वो संग-दिल तो यहाँ से कहीं चला भी गया
        ग़ज़ल
हँसी छुपा भी गया और नज़र मिला भी गया
मुनीर नियाज़ी

