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हंगाम-ए-नज़'अ महव हूँ तेरे ख़याल का | शाही शायरी
hangam-e-naza mahw hun tere KHayal ka

ग़ज़ल

हंगाम-ए-नज़'अ महव हूँ तेरे ख़याल का

हैदर अली आतिश

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हंगाम-ए-नज़'अ महव हूँ तेरे ख़याल का
मुश्ताक़ हूँ फ़रिश्ता-ए-साहिब-जमाल का

पैराहन उस जवाँ ने जो पहना है छाल का
मिलता नहीं चमन में मिज़ाज इक निहाल का

आलूदा बे-गुनाहों के ख़ूँ से है तेग़-ए-चर्ख़
ना-फ़हमों को गुमाँ है शफ़क़ में हिलाल का

शाना बनेंगे ब'अद-ए-फ़ना अपने उस्तुख़्वाँ
उक़्दा खुलेगा गेसुओं के बाल बाल का

बीनी सुहेल मुश्तरी ओ ज़ोहरा गोश हैं
क़ुतुब-ए-शुमाल-ए-हुस्न है तिल तेरे गाल का

किस किस बशर को लाई है दुनिया फ़रेब में
क्या क्या जवाँ मुरीद है उस पीर-ज़ाल का

लाती है वाँ क़ज़ा-ओ-क़दर मुर्ग़-ए-रूह को
पानी जहाँ क़फ़स का है दाना है जाल का

अमरद-परस्त है तो गुलिस्ताँ की सैर कर
हर नौनिहाल रश्क है याँ ख़ुर्द-साल का

इक दम मैं जा मिलूँगा अज़ीज़ान-ए-रफ़्ता से
क्या अर्सा है ज़माना-ए-माज़ी से हाल का

सुर्ख़ ओ सफ़ेद रंग से होता है आश्कार
वो जिस्म-ए-नाज़नीं है अबीर ओ गुलाल का

ऐ दिल क़ज़ा न आए इधर टिकटिकी न बाँध
गोली का सामना है ये नज़्ज़ारा ख़ाल का

बोसा दिए से हुस्न में होगी कमी न यार
होता नहीं ज़कात से नुक़सान माल का

वो चश्म ही नहीं दिल-ए-वहशी की फ़िक्र में
हर तुर्क को है शौक़ शिकार-ए-ग़ज़ाल का

ज़ंजीर ओ तौक़ हर बरस आ कर पिन्हा गई
दीवाना हूँ मैं बाद-ए-बहारी की चाल का

रोज़-ए-सियाह हिज्र में मेरे जले चराग़
परवानों को नसीब हुआ दिन विसाल का

रोने के बदले हाल पर अपने हँसा किए
पर्दा हुआ न फ़ाश हमारे मलाल का

दिखलाया बे-नक़ाब जिसे बंदा हो गया
वो रू-ए-सादा-नक़्श है साहिब कमाल का

करती है याँ ज़बान-ए-कमर यार में कलाम
मादूम है जवाब हमारे सवाल का

'आतिश' लहद से उठ्ठूँगा कहता ये रोज़-ए-हश्र
मुश्ताक़ हूँ मैं यार के हुस्न-ओ-जमाल का