हमेशा की तरह बाँहें मिरी पतवार करने का
किया है फ़ैसला नाव ने दरिया पार करने का
वही है मश्ग़ला सदियों पुराना आज भी अपना
ज़मीं पर बोझ होने आसमाँ को बार करने का
सफ़र का मरहला तो बाद में महल-ए-नज़र होगा
अभी तो मुद्दआ है रास्ता पुर-ख़ार करने का
तअल्लुक़ टूटता जाता है अपने-आप से मेरा
तवस्सुत बन रही है आगही बेज़ार करने का
मुझे रखती है मुश्किल रोज़-मर्रा की सहूलत में
मिरा मामूल है आसानियाँ दुश्वार करने का
तमद्दुन को हवा देती है आशुफ़्ता-सरी मेरी
मुझे तामीर करता है जुनूँ मिस्मार करने का
कहाँ तक और जाने आज़माती जाएगी मुझ पर
हुनर जो जानती है शायरी बेकार करने का
वो कुछ से कुछ बना डालेगा तस्लीमात के मअनी
सलीक़ा आ गया उस को अगर इंकार करने का
न जाने सोच कर सूरज ने क्या शब की क़लम-रौ पर
इरादा मुल्तवी ही कर दिया यलग़ार करने का

ग़ज़ल
हमेशा की तरह बाँहें मिरी पतवार करने का
ख़ावर जीलानी