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हमें तो मय-कदे का ये निज़ाम अच्छा नहीं लगता | शाही शायरी
hamein to mai-kade ka ye nizam achchha nahin lagta

ग़ज़ल

हमें तो मय-कदे का ये निज़ाम अच्छा नहीं लगता

आल-ए-अहमद सूरूर

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हमें तो मय-कदे का ये निज़ाम अच्छा नहीं लगता
न हो सब के लिए गर्दिश में जाम अच्छा नहीं लगता

कभी तन्हाई की ख़्वाहिश ये होती है कि लोगों का
पयाम अच्छा नहीं लगता सलाम अच्छा नहीं लगता

ख़ुदा से लौ लगाएँ या ख़ुदाई से रहे रिश्ता
फ़क़त अपनी ख़ुदी का एहतिराम अच्छा नहीं लगता

जबीन-ए-पुर-शिकन ख़ासान-ए-आलम की नहीं भाती
मगर ये भी है ग़ोग़ा-ए-आवाम अच्छा नहीं लगता

न ख़ुशबू पैरहन की है न ज़ुल्फ़ों की न बातों की
हमें ये जल्वा-ए-बाला-ए-बाम अच्छा नहीं लगता

मयस्सर हो तो क़द्रे लुत्फ़ भी नेमत है याँ यारो
किसी का वादा-ए-ऐश-ए-दवाम अच्छा नहीं लगता

ये सस्ती लज़्ज़तों सस्ती सियासत के पुजारी हैं
हमें अहबाब का सौदा-ए-ख़ाम अच्छा नहीं लगता

जहाँ हरकत नहीं होती वहाँ बरकत नहीं होती
'सुरूर' अब वादी-ए-गुल में क़याम अच्छा नहीं लगता