हमें लपकती हवा पर सवार ले आई
कोई तो मौज थी दरिया के पार ले आई
वो लोग जो कभी बाहर न घर से झाँकते थे
ये शब उन्हें भी सर-ए-रहगुज़ार ले आई
उफ़ुक़ से ता-ब-उफ़ुक़ फैलती बिखरती घटा
गई रुतों का चमकता ग़ुबार ले आई
मता-ए-वादा सँभाले रहो कि आज भी शाम
वहाँ से एक नया इंतिज़ार ले आई
उदास शाम की यादों भरी सुलगती हवा
हमें फिर आज पुराने दयार ले आई
न शब से देखी गई बर्ग-ए-आख़िरी की थकन
कि बूँद ओस से उस को उतार ले आई
मैं देखता था शफ़क़ की तरफ़ मगर तितली
परों पे रख के अजब रंग-ज़ार ले आई
बहुत दिनों से न सोए थे हम और आज हवा
कहीं से नींद की ख़ुश्बू उधार ले आई
वो इक अदा कि न पहचान पाए हम 'बानी'
ज़रा सी बात थी आफ़त हज़ार ले आई
ग़ज़ल
हमें लपकती हवा पर सवार ले आई
राजेन्द्र मनचंदा बानी