हमें अपनी मसाफ़त बे-मज़ा करना नहीं है
सफ़र करना है मंज़िल का पता करना नहीं है
बला से हम किसी साहिल पे पहुँचें या न पहुँचें
किसी भी नाख़ुदा को अब ख़ुदा करना नहीं है
हवाओं से ही क़ाएम है हमारी ज़ौ-फ़िशानी
हवाओं से चराग़ों को जुदा करना नहीं है
बदलते वक़्त के तेवर परखना चाहते हैं
कहा किस ने बुज़ुर्गों का कहा करना नहीं है
तुम्हीं ज़ामिन हो मेरी ज़िंदगी के मेरे ख़्वाबो
तुम्हें इक पल भी आँखों से रिहा करना नहीं है
कई आशुफ़्ता-सर मिल जाएँगे रस्ते में 'आलम'
किसी के वास्ते हम को सदा करना नहीं है
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ग़ज़ल
हमें अपनी मसाफ़त बे-मज़ा करना नहीं है
आलम ख़ुर्शीद