हमारे शहर-ए-अदब में चली हवा क्या है
ये कैसा दौर है यारब हमें हुआ क्या है
उसी ने आग लगाई है सारी बस्ती में
वही ये पूछ रहा है कि माजरा क्या है
ये तेरा ज़र्फ़ कि तू फिर भी बद-गुमाँ न हुआ
सिवाए दर्द के मैं ने तुझे दिया क्या है
लपक के छीन ले हक़ अपना कम-सवादों से
बढ़ा के हाथ उठा जाम देखता क्या है
भुला दिया है जो तुम ने तो कोई बात नहीं
मगर मैं जानता आख़िर मिरी ख़ता क्या है
अजीब शख़्स है किरदार माँगता है मिरा
सिवाए इस के मिरे पास अब बचा क्या है
कुरेद कर मेरे ज़ख़्मों को यूँ सवाल न कर
तुझे ख़बर है तो फिर मुझ से पूछता क्या है
मता-ए-ग़म को बचा रख छुपा के सीने में
तू इस ख़ज़ाने को औरों में बाँटता क्या है
हज़ार नेअ'मतें उस ने तुझे अता की हैं
अब और 'चाँद' तू इस दर से माँगता क्या है
ग़ज़ल
हमारे शहर-ए-अदब में चली हवा क्या है
महेंद्र प्रताप चाँद