हमारे जैसे ही लोगों से शहर भर गए हैं
वो लोग जिन की ज़रूरत थी सारे मर गए हैं
घरों से वो भी सदा दे तो कौन निकलेगा
है दिन का वक़्त अभी लोग काम पर गए हैं
कि आ गए हैं तिरी शोर-ओ-शर की महफ़िल में
हम अपनी अपनी ख़मोशी से कितना डर गए हैं
उन्हीं से सीख लें तहज़ीब राह चलने की
जो राह देने की ख़ातिर हमीं ठहर गए हैं
सभी को करते हैं मिल-जुल के रहने की तल्क़ीन
कुछ अपने आप में हम इस क़दर बिखर गए हैं
नहीं क़ुबूल हमें कामयाबी का ये जुनून
ये जानते भी हैं नाकामियों पे सर गए हैं
तो क्यूँ सताती है बिगड़े दिनों की याद कि हम
मुसालहत हुई दुनिया से अब सुधर गए हैं
हवा-ए-दश्त यहाँ क्यूँ है इतना सन्नाटा
वो तेरे सारे दिवाने बता किधर गए हैं

ग़ज़ल
हमारे जैसे ही लोगों से शहर भर गए हैं
सुहैल अख़्तर