हमारे हाथ थे सूरज नए जहानों के
सो अब ज़मीनों के हम हैं न आसमानों के
हज़ार गिर्द लगा लें क़द-आवर आईने
हसब-नसब भी तो होते हैं ख़ानदानों के
हुरूफ़-बीं तो सभी हैं मगर किसे ये शुऊर
किताब पढ़ती है चेहरे किताब-ख़्वानों के
ये क्या ज़रूर कि नामों के हम-मिज़ाज हों लोग
बहार और ख़िज़ाँ नाम हैं ज़मानों के
वो चाहे आ के न बाहर किसी से बात करें
ख़बर मकीनों की देते हैं दर मकानों के
हमारी क़द्र को समझे ये अस्र-ए-ना-क़द्राँ
हम अहल-ए-फ़न हैं खिलौने नहीं दुकानों के
अब ऐसी शोरिश-ए-बाज़ार-ए-मदह में 'महशर'
ख़मोश लहजे ग़नीमत हैं क़द्र-दानों के
ग़ज़ल
हमारे हाथ थे सूरज नए जहानों के
महशर बदायुनी